Saturday, July 31, 2010

मनहूस

जब भी तुम्हें देखती हूँ सवालों के भंवर में घिर जाती हूँ । सावन के बादलों की तरह घिरते सवाल मगर सूरज की किरण का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं । कितने सपने ले तुम्हारे घर कदम रखा था । मेरे माता-पिता ने शादी में किस चीज़ की कमी की ? सब खुश थे । और मैं सपनों के पँख लगा तुम्हारी दुनिया में आ गई । तुमने मुझे देखा और मेरे सपनों की डगर पर फूल ही फूल खिल गए । मगर रात सोने से पहले, अभी मैं सपनों के झूले पर ही झूल रही थी कि पहला आघात हुआ, "सुबह मुझे अपनी मनहूस सूरत मत दिखाना ।"
यह क्या था ? क्यों ? रात आँखों-आँखों में कट गई । मैं खुद अपने सवालों के भंवर में घिरी जवाब खोज रही थी । शायद मैंने ठीक-से नहीं सुना था । तुम ही तो सब-कुछ थे मेरे और अभी तो हमारा सफर शुरू भर हुआ था । सोचते-सोचते मैं अतीत के उन दिनों में खो गई जब इस प्यार की राह पर पहला कदम रखा था ।
माँ-पापा ने कल ही बताया था, "तुझे देखने लड़के वाले आ रहे हैं । माँ-बाप का इकलौता बेटा है । पढ़ा-लिखा है - एम० बी० ए० की है उसने । देखने में भी अच्छा है । जर्मनी में नौकरी करता है । राज करेगी तू ।"
और मैं भी साधारण पर शालीन ढंग से तैयार हो आई थी । और फिर वह पल भी आ गया जिसके लिए धड़कन तेज़ हो रही थी । शर्म से बोझिल पलकों में सपने संजोए मैं कमरे में दाखिल हुई ।
"यह है हमारी बेटी रूपकंवल ।"
"नमस्ते ।" मैंने धीमे स्वर में अभिवादन किया ।
"जीती रहो बेटी । आओ बैठो ।"
और मैं चुपचाप जा तुम्हारी माँ के पास बैठ गई । कई सवाल थे मन में । पर सब के सामने पूछने की धृष्टता न कर सकी । फिर औपचारिकताओं के बाद हमें आपस में बात करने के लिए अकेला छोड़ा गया । पहली बार तुम्हारी ओर देखा । देखने में तुम कुछ ख़ास नहीं थे, मगर तुम्हारी मुस्कान दुनिया जगमगा देती थी... और फिर तुम्हारी शिक्षा सबसे बड़ी चीज़ थी मेरी नज़रों में । मैंने सदा एक पढ़े-लिखे, सुलझे हुए जीवन-साथी की कल्पना की थी । और तुम बिल्कुल वैसे ही लगे थे । तुम जर्मनी में रहते थे । शादी के बाद मुझे भी वहीं जाना था । कुछ देर बाद सब वापस आ गए । तुमने हामी भर दी थी और मुझे भी इन्कार की कोई वजह न दिखी ।
शादी की तैयारियां होने लगीं । हम अक्सर मिलते थे और साथ खरीदारी भी करते । तुम्हारी मुस्कान का जादू अब भी मेरे सिर चढ़ बोल रहा था । मंत्रमुग्ध-सी तुम्हारे पीछ चल दी थी । मैं नौकरी छोड़ जर्मन भाषा पढ़ने लगी । आखिर पराए देश में शिक्षा ही काम आती है । साथ-साथ मैंने अंग्रेज़ी की आइलैट्स की परीक्षा भी पास कर ली । फिर वह दिन भी आया जब तुम धूम-धाम से मेरे घर आए और मैं सपनों की डोली में चढ़ तुम्हारे घर आ गई । सबने सिर-माथे पर रखा । मेरे रूप-गुणों से सब खुश थे ।
अभी शादी की रस्में पूरी भी न हुईं थीं कि अगले दिन सुबह-सुबह तुम वापस चले गए ।
अभी तो मेरे सिंदूर की लाली खिली भी नहीं थी ।
क्या करती ?
चुपचाप अजनबियों के बीच रहने लगी । जब तुम्हारा फोन आता, मन खिल-सा जाता । मगर तुम मुझे साथ ले जाने का नाम भी नहीं लेते । फिर घर वालों ने जब सवाल करने शुरू किये तो तुमने न्यौता भेजा और मैं जर्मन दूतावास आवेदन करने गई ।
फिर इंतज़ार । वहाँ से कोई जवाब नहीं आ रहा था । मेरी उमंगे टूटने लगीं थी, सपने बिखर-से गए थे । क्या करूँ, कुछ सुझाई नहीं दे रहा था । तुम प्यार भरे वादे तो करते थे पर... आखिरकार मुझे जर्मन दूतावास से बुलावा आया । मैं सज-संवर कर खुशी-खुशी वहाँ गई और फिर सब इतनी जल्दी हुआ कि ठीक-से सोच-समझ भी न पाई ।
और फिर मैं म्यूनिख पहुँची । चारों ओर अनजान चेहरे । मेरी आँखें तुम्हारी जानी-पहचानी सूरत ढूँढने लगीं । तभी पीछे से किसी ने मेरा कांधा थपथपाया । मैं मुड़ी... पर यह क्या? तुम्हारे साथ यह गोरी-चिट्टी लड़की कौन थी ? तुमने बताया कि उसका नाम मैरी है और वह हमारी पड़ोसन है । मुझे अजीब-सा लग रहा था, पर क्या कहती ? पूरे डेढ़ साल बाद हम मिल रहे थे, तब भी तुम किसी और को साथ लाए । धक्का-सा लगा मेरे मन को । पर मैं खामोश रही । अपने होते हुए भी तुम अजनबी थे । हमारे बीच अब भी एक दीवार थी । कितने सपने ले यहाँ आई थी - पति के घर । फिर भी इन शंकाओं को मन से दूर भगा फिर सपनों के आगोश में लौट आई । और हम घर आए । घर - हमारा घर । जहाँ हमने अपनी दुनिया बसानी थी । कितना सुंदर सजा था हमारा घर... जैसे... इतना सुंदर तो...
"मैंने कामवाली रखी है । वही हफ़्ते-पंद्रह दिन में एक बार साफ-सफाई कर जाती है । इंडिया जैसे यहाँ रोज़ धूल-मिट्टी तो होती नहीं ।"
मैं खुश थी । सब सपने पूरे हो रहे थे । मैं अपने घर थी । अपने पति के साथ । इन्हीं सपनों में जाने कब दिन गुज़र गया और शाम हो गई । वे भी दफ़्तर से आ गए थे । मैं सज-संवर कर इंतज़ार कर रही थी ।
कितनी खुशनसीब थी मैं कि मुझे इतनी अच्छी पड़ोसन मिली थी । हम दोनों थोड़ी देर बाद उसके घर गए ।
"मेरी ने यहाँ आने पर मेरी बहुत मदद की थी । इसी की बदौलत मुझे जर्मनी की नागरिकता मिली..."
मैं चुपचाप सुन रही थी । मेरी ने बताया कि उसके दो बच्चे थे । आज वे नानी के घर थे । एक-दो दिन में लौट आएंगे । खाने के बाद हम लौट आए । और मेरे सपनों को मंज़िल मिल गई । मगर...
क्यों ऐसा व्यवहार कर रहे थे वे । इतने इंतज़ार के बाद हम मिले थे । और आज ही तो हम एक हुए थे... शादी के डेढ़ साल बाद सुहागरात आई भी तो मेरी सूरत पर मनहूस का तमगा लगा गई । तुम तो कह दूसरे कमरे में सोने चले गए थे । और मैं अकेली इन सवालों के तूफान से जूझ रही थी । किस से कहती ? कौन था मेरा यहाँ ? इस अनजाने देश में ? अगर मेरी सूरत इतनी ही नापसंद थी तो क्यों की थी मुझसे शादी ? इनके पीछे भागती तो नहीं आई थी । खुद देख कर, बातचीत कर मुझे पसंद किया था । और मेरे माँ-पापा ने लाखों का दहेज भी तो दिया था ।
रात की कड़वाहट भुला सुबह उठ चाय बनाई । सोचा शायद कोई बात होगी... दफ़्तर की कोई परेशानी... रात भर में सब ठीक हो गया होगा । पर जैसे ही दूसरे कमरे में कदम रखा, पाँव तले की ज़मीन ही खिसक गई । सब सपने चकनाचूर हो गए - मेरे पति ने हमारी सुहागरात किसी और के साथ बिताई थी ।
हाथों से चाय की प्याली छूट गई । मुझे घुटन होने लगी और फिर निकल पड़ी मैं गाँव की गंवार, मनहूस इस अन्जान विदेशी शहर की गलियों में । दिल ज़ार-ज़ार रो रहा था । और पाँव सपनों की किरचियों से घायल थे । बस चले जा रही हूँ...

1 comment:

mai... ratnakar said...

awesome! sapnon kee kirchiyon se ghayal paanw aur atma ka dard behad khubsooratee se likha gaya hai. badhai